गीता सार- अध्याय -5 -कर्मसन्यासयोग
श्लोक (1-28 )भावार्थ
![]() |
गीतासार-अध्याय 5-कर्मसन्यास योग |
1-अर्जुन पूछते है-है कृष्ण आप कर्मो का त्याग करने को कहते है और फिर कर्मयोगी की प्रशंसा करते है।इन दोनों में क्या निश्चित कल्याणकारी है?
2-श्री कृष्ण कहते है-सन्यास और कर्मयोग दोनों कल्याणकारी है।परन्तु दोनों में कर्मयोग श्रेष्ठ है।
3-जो मनुष्य किसी से द्वेष नही करता ना आकांशा करता है वही कर्मयोगी एक असली सन्यासी भी है।और द्वंदों से मुक्त मनुष्य सुखपूर्वक संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
4-नामसझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोग को अलग अलग फल देने वाला कहते है।परंतु इनमें से किसी एक साधन में अच्छी तरह स्थित मनुष्य परमात्मा को पा लेता है।
5-दोनों साधनों से परमात्मा तत्व की प्राप्ति होती है,जो मनुष्य दोनों को समान फलदायक देखता है वही सही है।
6-परन्तु हे अर्जुन-कर्मयोग के बिना संख्या योग सिद्ध होना कठिन है।मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाते है।
7-जिसकी इन्द्रिय वश में है,अंतः करण निर्मल है,शरीर वश में है,जो सभी प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा मानता है ऐसा कर्मयोगी कभी कर्म करते हुए कर्मो में लिप्त नही होता है।
8-9-तत्वज्ञ सन्यासी देखते हुए,सुनते हुए,छूते हुए,सूंघते हुए,खाते हुए,चलते हुए,ग्रहण करते हुए,बोलते हुए,मलमूत्र त्यागते हुए,सोते,सांस लेते,आंखे खोलते और बन्द करते हुए ये समझता है कि मैं स्वयंम कुछ नही कर रहा हु,बल्कि संपूर्ण इंद्रियां अपने विषयो को बरत रही है ऐसा समझता है।
10-जो भक्त सभी कर्मो को परमात्मा को अर्पण करके आसक्ति का त्याग करके कर्म करता है,वह जल में कलम के पत्ते की तरह पाप से लिप्त नही होता है।
11-कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते है।
12-कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बँधता है।
13-अंतहकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनंदपूर्वक सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।
14-परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है।
15-सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे है।
16-परन्तु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्व ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है।
17- जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जिनकी निरंतर एकीभाव से स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति को अर्थात परमगति को प्राप्त होते है।
18- ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी (इसका विस्तार गीता अध्याय 6 श्लोक 32 की टिप्पणी में देखना चाहिए।) ही होते है।
19- जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं।
20- जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है।
21- बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है, तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है।
22-जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता है।
23-जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है।
24-जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है।
25-जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके सब संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो गए हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते है।
26-काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है।
27-28-( भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन ) बाहर के विषय-भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि जीती हुई हैं, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि (परमेश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करने वाला।) इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है।
Comments
Post a Comment
pls do not enter any spam link in the comment box